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अर्थ व्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए घोषित धन का 20% बच्चों पर खर्च हो

पिछले सप्ताह 12 जून को दुनिया भर में विश्व बाल श्रम विरोधी दिवस मनाया गया था मुझे दो कार्यक्रमों में शामिल होने का मौका मिला, पहला, दिल्ली में भारत के श्रम मंत्री तथा अन्य लोगों के साथ और दूसरा, यूनिसेफ, आईएलओ, एफएओ, मजदूर यूनियनों के अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन, रोजगारदाताओं के अंतर्राष्ट्रीय संगठन के मुखियाओं आदि हस्तियों के साथ दोनों कार्यक्रमों में कोविद-19 से के कारण बाल मजदूरी बढ़ने के खतरों पर गहरी चिंता जताई गई इस पर संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं, आईएलओ और यूनिसेफ ने एक रिपोर्ट भी जारी की है

मैंने इन दोनों कार्यक्रमों में कुछ सुझाव रखे थे यहाँ उनकी चर्चा करने से पहले 38 साल पहले की एक घटना का जिक्र करना चाहता हूँ आज 17 जून का दिन है संयोग से कल कुछ पुराने कागज पलटते हुए मुझे सन 1982 में जून के इसी सप्ताह में घटे एक हादसे की जानकारी पढ़ने को मिली, जिसे मैं आपसे साझा कर रहा हूँ


यह उन दिनों की बात है जब हम दिल्ली के पास फरीदाबाद की पत्थर खदानों में हजारों गुलाम परिवारों को आजादी और न्याय दिलाने की जद्दोजहद में जुटे हुए थे| एक दिन मुझे वहां किसी मजदूरिन के साथ हुए बलात्कार की खबर मिली| जिसे सुनकर मैं पुलिस कार्यवाही और उसकी मदद के लिए वहां गया था। पहुँचते ही एक और दर्दनाक खबर मिली थोड़ी देर पहले वहां से तीन-चार किलोमीटर दूर एक खदान धंस गई थी जिसमें 17-18 साल का एक नेपाली बंधुआ मजदूर दबकर मर गया था। मैं एक कार्यकर्ता के साथ मोटर सायकिल से तुरंत वहां जा पहुंचा। तब तक उस युवक की लाश निकाली जा चुकी थी।


खदान के इर्द-गिर्द ठेकेदारों, खदान मालिकों और मजदूरों की भीड़ जमा थी। मुझे देखकर सभी चौंक पड़े। मैं भीड़ के अन्दर घुस गया। लाश के ऊपर एक पुराना कपड़ा पड़ा था जिसमें से खून निकल रहा था। वहां उस युवक के मां-बाप भी मौजूद थे। मैंने उनसे और बाकी लोगों से कहा कि लाश को पोस्टमार्टम के लिए भेजना चाहिए। पुलिस को भी खबर की जाए। इतना सुनते ही पास खड़े एक आदमी ने मेरी छाती में धक्का देकर मोटर सायकिल के ऊपर गिरा दिया। मैंने सम्भलते हुए खड़े होकर मृतक के मां-बाप से कहा, ’’आप लोग चुप क्यों हैं? आपके बेटे को इंसाफ मिलना चाहिए। कानूनी तौर पर आपको भी मुआवजा मिलेगा।’’ उसकी मां ने जवाब दिया, ’’नहीं बाबूजी, हमारे मालिक जो करेंगे हमें मंजूर है। बेटे की जिंदगी इतने ही दिन की थी।’’ फिर भी मैं सभी को समझाने की कोशिश करता रहा


तभी मालिक के कई गुण्डों ने मेरे साथ मारपीट शुरू कर दी। मेरे मुंह और पैर से खून बहने लगा। कुछ लोग दिखावे के तौर पर बीच बचाव का नाटक करके मुझे बाहर खींच लाए। वे चिल्ला रहे थे, ’’यहां से भाग जाओ, वरना इस बहादुर (मृतक मजदूर) के साथ तेरी भी चिता जला देंगे।’’ उसी बीच मेरा वह साथी जमीन पर पड़ी मोटर सायकिल को उठाकर बाहर ले आया था। उसने धक्का देकर मोटर सायकिल स्टार्ट कराई। हम दोनों वहां से अपनी जान बचाकर भागे। मैंने थोड़ी दूर एक मजदूर बस्ती में हैण्ड पम्प के पास मोटर सायकिल रोक कर हाथ-मुंह धोकर पानी पिया और पैर की चोट को रूमाल से बांधा।


मैं दर्द के मारे बड़ी मुश्किल से मोटर सायकिल चला पा रहा था। मेरा शरीर धूल और पसीने से सना हुआ था। हालांकि तब तक मुंह का खून बंद हो चुका था। हम सीधे पुलिस चौकी गए। वहाँ पहुंचकर हक्के-बक्के रह गए। हमसे पहले ही कुछ खदान ठेकेदार मेरे खिलाफ रिपोर्ट करने के लिए वहां पहुंचे हुए थे। शायद उन्हें अंदाजा नहीं था कि मैं वैसी हालत में वहां पहुंच सकूंगा। मेरी चोटों को देखकर पुलिस वालों की हिम्मत नहीं हुई कि वे मेरे खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर सकें। लेकिन मेरी हर कोशिश के बावजूद मुझ पर हमला करने वालों के खिलाफ भी रिपोर्ट दर्ज नहीं की। मेरा साथी और मैं वहां से तब तक नहीं हटे, जब तक कि पुलिस धंसी हुई खदान की तरफ रवाना नहीं हो गई।


मेरे घर में टेलीफोन नहीं था। खदान मालिकों के पास कहीं से मेरे आफिस का फोन नम्बर था। वे उसी पर आवाजें बदल-बदल कर मुझे जान से मारने की धमकियां देते रहते थे। उनकी धमकियों से ज्यादा असभ्य और अश्लील उनकी भाषा होती थी, जिसे सुनकर मैं तिलमिला उठता था। पहले हम लोग अक्सर दिन में निश्चित समय पर या देर शाम को खदानों की झुग्गी बस्तियों में जाते थे| हमें धमकियों से डर भी लगता था, इसलिए बिना ज्यादा लोगों को सूचना दिये अलग-अलग और अनिश्चित समय पर जाने लगे थे


हमारी तमाम कोशिशों के बावजूद बलात्कार की शिकार मजदूरिन ने कभी पुलिस में शिकायत दर्ज नहीं कराई। बहादुर का पोस्टमार्टम जरूर हुआ था, लेकिन खदान मालिकों और ठेकेदारों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हो सकी। मेरे लिए इस तरह की घटनाएं निराशापूर्ण नहीं, बल्कि चुनौती भरी रही हैं। इसीलिए हम उस इलाक़े से भागे नहीं, बल्कि नयी ऊर्जा और रणनीति के साथ जुट पड़े थे। खदान मज़दूरों ने यूनियन बना कर कई अधिकार हासिल किए। हमने सुप्रीम कोर्ट की मदद से लगभग ढाई हज़ार परिवारों को ग़ुलामी से आज़ाद करा कर पुनर्वासित भी कराया। अगर पीढ़ियों से दबे-कुचले और अशक्त बनाकर रखे गए लोग हिम्मत के साथ अपने अधिकारों की लड़ाई खुद लड़ सकें, तो अन्याय अपने आप खत्म हो जाएगा। लेकिन असलियत में ऐसा नहीं होता। वे स्वाभाविक तौर पर ताकतवर से डरते हैं, क्योंकि उनकी ताकत को भुगत चुके होते हैं। जबकि उन्हें पहले कभी मदद के लिए खड़े होने वालों की नीयत या कानून की ताकत का अनुभव नहीं है। इसलिए वे किसी दूसरे पर भरोसा करने के बजाय, आसानी से ताकतवर के आगे झुक जाते हैं या समझौता कर लेते हैं।


यह तब की बात है जब बाल मजदूरी और बंधुआ मजदूरी जैसे शब्द कहीं पढ़ने सुनने में नहीं आते थे| मुझे खुशी है कि धूमदास, आदर्श किशोर और कालू कुमार की शहादतों, बचपन बचाओ आंदोलन और दूसरे कई संगठनों के हजारों कार्यकर्ताओं के संघर्ष और सन 1998 में विश्व यात्रा में हमारे साथ शामिल होने वाले डेढ़ करोड़ लोगों की भागीदारी आदि के परिणाम स्वरूप अब बाल मजदूरी एक मुद्दा बन चुका है| दुनिया भर में बाल श्रम विरोधी दिवस भी मनाया जाता हैपिछले 20 सालों में बाल मजदूरों की संख्या में 10 करोड़ की कमी आई है अब हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि कहीं इन उपलब्धियों पर पानी न फिर जाए


कोविद-19 के दौरान और उसके बाद और भी ज्यादा उपेक्षा, उत्पीड़न और अन्याय के शिकार हो रहे गरीब लोग खुद अपने बच्चों को गुलामी, ट्रैफ़िकिंग, बाल विवाह, बाल मजदूरी और वैश्यावृत्ति आदि से बचा पाएंगे, इसमें संदेह है| इसलिए इन्सानों की आज़ादी, गरिमा, समानता और इंसाफ में भरोसा करने वाले कार्यकर्ताओं को बहुत संकल्पित, सक्रिय और धैर्यवान होना जरूरी है। शायद पहले से भी कहीं ज्यादा


अन्याय के खिलाफ बदलाव का संघर्ष बहुआयामी होता है। यह संघर्ष बाहर समाज की जड़ता और शासकों की संवेदनहीनता के साथ साथ शोषित लोगों के भीतर की बेबसी, लाचारी,अज्ञानता तथा खौफ के खिलाफ भी करना पड़ता है। इनसे से भी बड़ी लड़ाई खुद के भीतर की थकान, निराशा, अकर्मण्यता और आत्मविश्वास की कमी से लड़ना पड़ती है।


किसी एक बच्चे का भी बचपन छिनना हमारी सभ्यता, संस्कृति, धर्म, कानून, वैभव और तरक्की आदि की असफलता का प्रमाण है फिर तो हम मजदूरी और गुलामी के शिकार बने हुए 15 करोड़ बच्चों की बात कर रहे हैं| अगर इसी तरह से ईमानदार राजनैतिक इच्छाशक्ति, कॉर्पोरेट जगत में जिम्मेवारी और सामाजिक सरोकार व सक्रियता का अभाव बना रहा, तो आगे आने वाले महीनों और सालों में बाल मजदूरी बेतहाशा बढ़ेगी


कोरोना महामारी के कारण इस साल विश्व के करीब 6 करोड़ नए बच्चे बेहद गरीबी में धकेले जा सकते हैं, जिनमें से बड़ी संख्या में बाल मजदूर बनेंगे सरकारें 37 करोड़ बच्चों को मध्यान्ह भोजन या स्कूल जाने के बदले उनके माता-पिता को नकद धनराशि देती हैं। एक बार लंबी अवधि के लिए स्कूल छूट जाने के बाद ज्यादातर गरीब बच्चे दोबारा नहीं लौटते। अर्जेंटीना में सन 2018 में हुई शिक्षकों की लंबी हड़ताल के बाद और लाइबीरिया में फैली इबोला महामारी के बाद स्कूलों में बच्चों की संख्या घटी और बाल मजदूरी बढ़ी। कोरोना का ज्यादा दुष्प्रभाव सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े व कमजोर वर्गों पर पड़ रहा है। उनकी गरीबी तथा बेरोजगारी और बढ़ेगी। इसका खामियाजा उनके बच्चों को भुगतना पड़ेगा।


मैंने दोनों कार्यक्रमों में ज़ोर देकर कहा कि सरकारों को साहसिक, नवीनतापूर्ण और त्वरित उपाय करना चाहिए| कुछ हफ्ते पहले हमारे संगठन ‘लोरिएट्स एण्ड लीडर्स फॉर चिल्ड्रेन’ की ओर से 45 नोबल पुरुस्कार विजेताओं, 20 भूतपूर्व राष्ट्राध्यक्षों और कई विश्व नेताओं को साथ लेकर मैंने अंतर्राष्ट्रीय समुदाय, खासकर अमीर देशों और राष्ट्रीय सरकारों से मांग की थी कि वे कोविद-19 से निबटने हेतु अपने निर्धारित राशि में से कम से कम 20 प्रतिशत धन समाज के उपेक्षित बच्चों के ऊपर खर्च करें ऐसे बच्चों की संख्या लगभग 20 प्रतिशत ही है यानि कि 20 प्रतिशत आबादी के लिए उसी अनुपात में पैसा खर्च करना चाहिए मैं यहाँ बता दूँ कि अमीर देशों ने अब तक घोषित 7000 अरब डॉलर का लगभग 99 फीसदी भाग अपने ऊपर और अपने देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों को आर्थिक संकट से उबारने के लिए सुनिश्चित कर दिया है इसलिए हमारी मांग है कि कम से कम 1000 अरब डॉलर निर्धन व उपेक्षित बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि के मद में खर्च होना चाहिए


आपको ज्ञात होगा कि लगभग तीन साल पहले कई युवा कार्यकर्ताओं के साथ हमने 100 मिलियन फॉर 100 मिलियन, यानि ‘10 करोड़ के लिए 10 करोड़’ अभियान शुरू किया था हमारा सपना है कि विश्व में हिंसा के शिकार 10 करोड़ बच्चों के लिए बेहतर हालत में जीने वाले 10 करोड़ बच्चे और युवा आगे आएं वे उनकी स्वतन्त्रता, सुरक्षा और शिक्षा के लिए स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय स्तर पर अभियान चलाएं मुझे यह कहते हुए संतोष है कि अफ्रीका, यूरोप और दक्षिणी अमेरिका के सबसे प्रभावशाली छात्र संगठन 30 से अधिक देशों में फेयर शेयर फॉर चिल्ड्रेन के नारे के तहत वही 20 प्रतिशत की मांग के लिए अभियान चला रहे हैं


बाल मजदूरी को बढ़ने से रोकने के लिए हमें कुछ ठोस उपाय करने होंगे। पहला, लॉकडाउन के बाद यह सुनिश्चित करना होगा कि स्कूल खुलने पर सभी छात्र कक्षाओं में वापिस लौट सकें। इसके लिए स्कूल खुलने से पहले और उसके बाद भी नगद प्रोत्साहन राशि, मध्यान्ह भोजन और वजीफे आदि को जारी रखा जाए। भारत में मध्यान्ह भोजन और ब्राजील, कोलम्बिया, जाम्बिया और मैक्सिको में अभिभावकों को नगद भुगतान जैसे कार्यक्रमों का बहुत लाभ हुआ है। इन्हें और भी देशों में लागू करने से बाल मजदूरी कम होगी। मैक्सिको और सेनेगल जैसे देशों में शिक्षा के स्तर में सुधार से बाल मजदूरी कम हुई है।


दूसरा, शिक्षा क्षेत्र में टेक्नोलॉजी को सस्ता और सुलभ बनाकर गरीब और पिछड़े परिवारों के बच्चों को पढ़ाई से जोड़ा जाना जरूरी है। तीसरा, सरकारें गरीबों के बैंक खातों में नगद पैसा दें। साथ ही भविष्य में रोजी-रोटी के लिए उन्हें सस्ते और सुलभ कर्जे उपलब्ध कराए, ताकि वे साहूकारों के चंगुल में न फंसे और अपने बच्चों को बंधुआ मजदूरी और ट्रैफिकिंग से बचा सकें। चौथा, अर्थव्यवस्था सुधारने और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए सरकारें श्रमिक कानूनों को लचीला और कमजोर बना रही हैं। इससे असंगठित क्षेत्रों के मजदूरों में गरीबी और उनके बच्चों में बाल मजदूरी बढ़ेगी। बाल और बंधुआ मजदूरी के कानूनों में कतई ढील नहीं देनी चाहिए।

पांचवां, देशी और विदेशी कंपनियां सुनिश्चित करें कि उनके उत्पादन और सप्लाई चेन में बाल मजदूरी नहीं कराई जाए। सरकारों को चाहिए कि वे क़ानून बना कर सुनिश्चित करें कि उनके देशों की कम्पनियाँ जिस देश से भी सामान बनवातीं और खरीदतीं हैं वहाँ की सप्लाई चैन में बाल मज़दूरी नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा सरकारें खुद निजी कंपनियों के सामान की बड़ी खरीददार होती हैं, इसलिए वे सिर्फ बाल मजदूरी से मुक्त सामान ही खरीदें।


मैंने 12 जून को संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं के कार्यक्रम में सभी से अपील की कि हमारी ‘20% के लिए 20%’ मांग का समर्थन करें अच्छी योजनाओं, लोक-लुभावन भाषणों, गहन विश्लेषणों और रिपोर्टों से हमारे बच्चों को नहीं बचाया जा सकता मेरे विचार से मजबूत और दूरदर्शी नेतृत्व का सिर्फ एक पैमाना है कि वह नीतियों, कार्यक्रमों और बजट के आवंटन में बच्चों को कितनी प्राथमिकता देता है अगर संकट के इस दौर में हम अपने बच्चों को नहीं बचा सके तो न केवल एक पूरी पीढ़ी बर्बाद हो जाएगी, बल्कि आगे आने वाली कई पीढ़ियों तक को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा मुझे विश्वास है कि हम ऐसा कभी नहीं होने देंगे

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