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कोविद-19 से उपजे सभ्यता के संकट से कैसे निबटें ?

Updated: May 22, 2020

कोविद-19 महामारी को विश्व समुदाय, सरकारें और समाज मोटे तौर पर स्वास्थ्य का संकट और आर्थिक सकंट मान रहा है। प्रवासी मजदूरों और वंचित लोगों की पीड़ा के कारण इस त्रासदी को मानवीय संकट के रूप में भी देखा जा रहा है। मेरे विचार से यह संकट सभ्यता का संकट है। जो दार्शनिक और विद्वान सभ्यताओं को कठोर सामाजिक यथार्थ के नजरिये से देखते हैं, वे शीत युद्ध की समाप्ति के बाद के समय को सभ्यताओं के टकराव का दौर मानते हैं। जैसे पूर्वी बनाम पश्चिमी और इस्लाम बनाम बाकी सभ्यताओं का टकराव। दूसरी ओर, जो उसे लिजलिजी या तरल असलियत समझते हैं, वे वर्तमान समय को सभ्यताओं के संक्रमण का काल कहते हैं। मैं सोचता हूं कि हरेक सभ्यता में कुछ ठोस और कुछ तरल तत्व होते हैं। अलग-अलग भूगोल और इतिहास से निर्मित होने के बावजूद भी विभिन्न सभ्यताओं में बहुत सी चीजें साझा होती हैं। पिछले दो-तीन दशकों में राजनीति, विश्व बाजार और बहुत तेजी से बढ़ रही टेक्नोलाॅजी ने मानव सभ्यता के इस साझेपन को अप्रत्याशित रूप से बढ़ाया और गहराया है।

जीवन जीने के साझा तौर-तरीकों को सभ्यता कहा जा सकता है। हर बड़े युद्ध या महामारी के बाद लोगों की जिंदगियों में उथल-पुथल होती रही है जो सभ्यताओं को भी प्रभावित करती है। अब अचानक पूरी मानव जाति पर जो अनजानी, अदृश्य आपदा टूट पड़ी है, उसका बहुत दूरगामी असर होने वाला है। क्योंकि कोरोनावायरस की वैश्विक महामारी से सभ्यता की बुनियादों से लगाकर उसको चलाने और दिशा देने वाली शक्तियां कमजोर होती नजर आ रही हैं। स्वास्थ और अर्थव्यवस्था तो देर-सवेर सुधर जाएगी, लेकिन यदि हमने उन बुनियादों की हिफाज़त नहीं की तो मनुष्यों के रहन-सहन और खान-पान के तौर तरीके ही नहीं, बल्कि मानवीय संबंधों के ताने-बाने, नैतिकता के मापदण्ड और राज्य व्यवस्थाओं का चरित्र आदि सभी कुछ प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।

कराहती मानवता

इन पंक्तियों को लिखते वक्त मैं भारत के एक अस्पताल में मौत से जूझ रहे उन मासूम बच्चों के बारे में सोच रहा हूं, जिन्हें भूख और कोरोना से बचाने के लिए उनके पिता उन्हें साईकिल पर लेकर निकले थे। कृष्णा साहू लखनऊ में मेहनत-मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालते थे। लॉकडाउन में दाने-दाने को मोहताज होकर अपनी पत्नी और दो बच्चों को सायकिल पर बैठाकर सैकड़ों किलोमीटर दूर छत्तीसगढ़ में अपने गांव लौट रहे थे। किसी तेज वाहन की टक्कर से पत्नी और वे कुचल कर वहीं मर गए। घायल बच्चों को पुलिस ने अस्पताल पहुंचाया। मैं खून से सनी रोटियों और उनसे चिपकी मनुष्य की उन उंगलियों को भी नहीं भूल पा रहा हूं, जो महाराष्ट्र में औरंगाबाद के पास रेल की पटरियों में पड़ी थीं। वे उंगलियां गांव वापिस लौटने के लिए पैदल चल रहे उन 16 मजदूरों में से किसी की थीं, जो रात में थक कर पटरी पर लेट गए थे। धड़धड़ाती रेल ने उन्हें रौंद डाला था।

मैं चीन के हुबैइ शहर में अपने घर में व्हीलचेयर पर भूख-प्यास से मृत पड़े मिले 16 वर्षीय विकलांग चैंग को याद कर रहा हूं। उसकी देखभाल करने वाले बीमार पिता को अस्पताल में भर्ती करा दिया गया था जिससे चैंग की खोज-खबर लेने वाला कोई नहीं बचा था। इनमें से कोई कोरोना से नहीं मरा। बल्कि, हमारे सभ्य समाज की संवेदनहीनता, एहसान-फरामोशी और मतलब परस्ती ने उनकी हत्या की।


पिछले हफ्ते दक्षिण अफ्रीका की एक सोने की खदान में धंसे पड़े सैकड़ों बाल मजदूरों की तस्वीरें मेरे जे़हन से नहीं हट रही हैं जिनके मालिक उन्हें भूखा-प्यासा छोड़कर भाग गए थे। भारत सहित दुनिया के कई देशों में मालिक और ठेकेदार कोरोनावायरस से बचने के लिए सुरक्षित जगहों पर चले गए। जबकि उनके कारखानों, खदानों, घरों आदि में फंसे बच्चों को राहत पहुंचाने या निकालने का संघर्ष जारी है। इसी तरह मैंने थाइलैण्ड की उन तीन लाख से ज्यादा बेटियों और बहनों की खबर पढ़ी है, जो यौन शोषण के नरक में जी रही थीं। किन्तु अब वे लाॅकडाउन के दौरान भूखे मरने को मोहताज हैं। दस्तावेज न होने से वे मजदूरों को मिल सकने वाली सरकारी नगदी सहायता की हकदार तक नहीं हैं।

दूसरी ओर विश्व भर में लाॅकडाउन के दौरान घरों में बंद पड़े लोगों में मानसिक तनाव, अवसाद, निराशा, एकाकीपन, घरेलू हिंसा और तलाक की घटनाएं बढ़ रही हैं। ऑनलाइन बाल यौन शोषण और बच्चों के पोर्न की मांग में बेतहासा वृद्धि हुई है। अपने दोस्तों, शिक्षकों, स्कूलों, खेल के मैदानों और रिश्तेदारों से रूबरू न मिल पाने के कारण बच्चों में झुंझलाहट, गुस्सा, ज़िद, माता-पिता की अवज्ञा और एकाग्रता की कमी जैसे लक्षण बहुत चिंताजनक हैं।

सभ्यता का संकट

मैं इन गंभीर परिस्थितियों को सभ्यता का संकट मानता हूं। सामूहिकता सभ्यताओं की बुनियाद होती है। सामूहिक अनुभवों, सामूहिक मान्यताओं और परंपराओं, सामूहिक विचारों और व्यवहारों आदि से सभ्यताओं का निर्माण होता है। अस्तित्व और आजीविका की सुरक्षा की चिंता, आजादी के लिए अकुलाहट, अज्ञात की खोज की इच्छा और नव निर्माण की ललक सभ्यताओं के विकास के ईंधन होते हैं। यही चीजें भाषा, कला, संगीत, स्थापत्य, बसाहट, शासन पद्धतियों और समाज व्यवस्थाओं का रूप लेती हैं। इनमें सिर्फ मनुष्य जाति की सामूहिक अक्ल ही नहीं, बल्कि सामूहिक भावनाएं भी शामिल होती हैं।

कोविद-19 का वैश्विक रिस्पाॅन्स यानि मुकाबला करने का तरीका जितना स्वास्थ संबंधी, प्रशासनिक, आर्थिक, औद्योगिक और वैज्ञानिक नजर आ रहा है, उतना भावनात्मक नहीं दिखता। यह स्वाभाविक ही है, क्योंकि पूरी दुनिया जिंदा रहने के लिए ऐसे संकट से जूझ रही है, जो पहले कभी नहीं आया। उदाहरण के तौर पर सोचिये। करोड़ों प्रवासी मजदूर इस कदर खौफज़दा, लाचार, हताश, बेबस और बेसब्र होकर अफरा-तफरी में अपने गांवों की तरफ क्यों भाग रहे हैं? क्या वह सिर्फ कोरोनावायरस का डर है? मुझे ऐसा नहीं लगता। यह उनका शहरी समाज से पूरी तरह मोहभंग है, जिसमें राजकीय तंत्र और उनके रोजगार दाता भी शामिल हैं। यूं भी कह सकते हैं कि सभ्य समाज ने कभी उनके साथ भरोसे के रिश्ते रखे ही नहीं थे। यह भावनात्मक विषमता (इमोशनल डिस्पैरिटी) की बहुत गहरी खाई का खुलासा है। घर लौटते हुए इन लोगों का एक-एक कदम इस खाई को हमेशा के लिए और भी गहरा कर रहा है। महामारी के प्रकोप के दौरान सभ्यता के बाहरी ढांचे के निर्माताओं और उपभोक्ताओं के बीच के नजरिये का फर्क (परशैप्सनल डिफरेन्स), और संज्ञानात्मक भेदभाव (काॅगनिटिव डिस्क्रिमिनेशन) भी उजागर हो रहे हैं। इनके और ज्यादा बढ़ने का खतरा है। यहां तक कि कोविद-19 से संक्रमित व्यक्तियों को दिये जाने वाले राहत कार्यों में सामाजिक, नस्लीय और लैंगिक भेदभाव नजर आ रहे हैं।

विषमता का दुष्प्रभाव

अब सामूहिकता की बुनियाद डगमगाने के खतरों पर लौटता हूं। पहला- मुनाफा, कमाई, लूट, उपभोग, धन-दौलत का संचय और संग्रह जैसी प्रवृत्तियों से चलने वाली अर्थव्यवस्था ने पहले से ही असमानता की खाई खोद रखी है, अब यह और भी ज्यादा बढ़ेगी। शिक्षा, स्वास्थ और सुरक्षा का निजीकरण और व्यवसायीकरण बढ़ने से गरीबों के रहन-सहन, खान-पान, भाषा, शौक आदि प्रभावित होंगे, क्योंकि उनके पास इन्हें खरीद सकने की क्षमता नहीं होती। इसी तरह उद्योगों के स्वचालितीकरण (ऑटोमाइजेशन) और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) और आधुनिकतम कम्प्यूटरीकरण आदि के कारण भविष्य में केवल उत्पादक मानव संसाधनों यानि प्रोडेक्टिव ह्यूमन रिसोर्स की मांग और अहमियत बनी रह पाएगी। बूढ़े, शरीर या बुद्धि से कमजोर या विकलांग और गरीबों के बच्चे हासिये से बाहर होते जाएंगे। उद्योग धंधे और रोजी-रोटी आदि के चौपट हो जाने के कारण बढ़ने वाली बेरोजगारी का आर्थिक ही नहीं, सामाजिक दुष्प्रभाव पड़ना तय है। इसका नतीजा अतिवादिता (ऐक्सिट्रिमिज्म), अलग-अलग वर्गों के बीच तनाव, हिंसा, अपराध, लूटपाट आदि के रूप में भी निकल सकता है।

लोकतंत्र, निजता और मानवाधिकारों पर आघात

दूसरा- प्रचार, लोकलुभावनता (पापुरलिज्म), व्यक्तिवाद, घृणा, काल्पनिक भय का हौवा खड़ा करके सूरमा होने की छवि बनाने, उग्र राष्ट्रवाद और एक तरफा फैसलों पर चल रही आज की राजनीति ने समावेशिता (इन्क्लूजन) और सामूहिकता की जड़ों को पहले ही खोद रखी हैं। अब अलग-अलग राष्ट्रों के ताकतवर शासक और ताकतवर बनेंगे। ‘जनहित’ और ‘सुरक्षा’ की आड़ में लिए जाने वाले कड़े फैसलों से नागरिक अधिकारों का दमन, निजत्व पर कैंची, बूढ़ों तथा बच्चों की अनदेखी और वंचित वर्गों की दुर्गति के खतरे बढ़ेंगे। इसी तरह कमजोर नेतृत्व वाले देशों में अस्थिरता, अफरातफरी और अराजकता फैल सकती है। औद्योगिक क्रांति के बाद मानव सभ्यता में कई बड़े सकारात्मक बदलाव आए हैं, उनमें लोकतंत्र के लिए जद्दोजहद, समन्वित विकास की चाह और मानव अधिकारों की परिकल्पना, स्वीकार्यता और प्रतिबद्धता जैसी उपलब्धियां शामिल हैं। ऐसे दोनों ही हालातों में लोकतंत्र सिकुड़ेंगे और आजादी, मानव अधिकारों तथा सामाजिक न्याय पर कुठाराघात होगा। इस सब का परिणाम सभ्यता के संकट में बदलेगा।

श्रमिकों पर दोहरी मार

तीसरा- सरकार और व्यापार चलाने वालों का गठजोड़ इतना बढ़ चुका है कि सत्ता में बैठे लोग हर चीज को सिर्फ आर्थिक नजरिए से देखते हैं और उसी को सभी तालों की चाबी मानते हैं। अब कोविद-19 उन्हें यह मौका दे रहा है कि श्रमिक और औद्योगिक सुधारों के नाम पर उसी नजरिए को कानूनी जामा पहना दें। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रमिकों की मोल भाव यानि कलैक्टिव बार्गेनिंग की क्षमता को कानून के हथौड़े से कुचल दिया जाए। इसका सबसे आसान तरीका होगा, जहां तक संभव हो सके उत्पादन की इकाईयों को टुकड़ों में बांट कर अनियंत्रित सप्लाई चेन को बढ़ावा देना, ताकि उद्योगों को अनौपचारिक क्षेत्रों में और मजदूरों को असंगठित क्षेत्रों में धकेल कर उनकी संगठित शक्ति को कमजोर किया जा सके। विकासशील देश अगर उद्योगपतियों और विदेशी निवेशकों को लुभाने के लिए अपने संवैधानिक और संसदीय ढांचों में उलट फेर करने लगें तो आश्चर्य नहीं होगा।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया के इतिहास में मजदूरों की भूमिका सिर्फ श्रम बेचकर उत्पादन करने की ही नहीं, बल्कि राष्ट्रों में लोकतंत्र, स्वतंत्रता, सामाजिक न्याय स्थापित और समृद्ध करने की भी रही है। उनकी आर्थिक तरक्की और क्रय शक्ति यानी खरीद क्षमता के बढ़ने से रोजगार और शिक्षा के अवसर बढ़े हैं। स्वास्थ और महिला सशक्तिकरण की स्थिति बेहतर हुई है। कोरोनावायरस के बाद के दौर में सैकड़ों सालों के संघर्ष से हासिल की गई इन उपलब्धियों के मटियामेट होने से सभ्यता का संकट और भी गहराएगा।

नैतिकता का हृास

चौथा- सभ्यता के विकास क्रम में बहुत लंबे कालखण्ड में नैतिकता के पैमाने गढ़े जाते हैं। जरूरी नहीं कि वे सभी जगह और सभी वक्तों के लिए उचित हों। इसीलिए उनमें सुधार की गुंजाइश बनी रहती है। हां, वे मूल तत्व कम ही बदलते हैं जिनमें सभी की भलाई निहित होती है। हम कई सालों से महसूस कर रहे हैं कि निजी और सार्वजनिक नैतिकता में तेजी से कमी होती रही है। कोविद-19 महामारी के दौरान यह साबित हो गया है कि आज दुनिया में कोई बड़ा नैतिक नेतृत्व मौजूद नहीं है, जिसकी सार्वभौमिक मान्यता हो। ऐसी हालत शायद पहले कभी नहीं हुई। ऐसा नहीं कि धरती ऐसे व्यक्तियों से खाली हो चुकी है। लेकिन प्रचार, टेक्नालॉजी, मीडिया, व्यावसायिक छवि निर्माण, धर्म, बाजार, राजनीति आदि ही यह फैसला करते हैं कि किसकी, कब, कहां, कितनी बड़ी या छोटी और कितनी देर के लिए कोई मूर्ति निर्मित की जाए, ताकि उससे ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाया जा सके। भविष्य में ऐसे अवतार ही नई नैतिकता, मूल्य व्यवस्था और सभ्यता निर्मित करेंगे। ऐसी हालत में राजनीति में नीति (मौरल्स), व्यापार में आचार (एथिक्स) और सामाजिक व्यवहार में चरित्र (कैरेक्टर) की गिरावट आती जाएगी। यही सभ्यता के संकट के लक्षण हैं।

भावनात्मक सुरक्षा पर खतरा

पांचवा- कोरोना महामारी के बाद ’डिजिटल’ या ’वर्चुअल’ अथवा ’ई’ संसार का बोलबाला बढ़ना तय है। ऐसे में शिक्षा, व्यवस्था, प्रबंधन, अनुसंधान, कांउसलिंग, चिकित्सा, बिक्री खरीद से लगाकर सरकारें चलाने के नए-नए ’ई’-तरीके ईजाद होंगे। इसीलिए मुझे संदेह है कि ये तौर-तरीके नैतिक मूल्यों, सामूहिकता, समावेशिता, न्याय, स्वतंत्रता, मानवीय गरिमा और इंसानियत को बचा पाएंगे। आप एक ऐसे समाज की कल्पना कीजिये जब शिक्षकों, डॉक्टरों, धर्मगुरुओं, परिवार के बुजुर्गों सहित ऐसे सभी व्यक्तियों की जरूरत और भूमिका नाम मात्र की रह जाएगी, जो आपका हाथ पकड़ कर, प्यार करके या झिड़क कर आपको मार्गदर्शन या सांत्वना दे सकें। तब पीठें तो होंगी, लेकिन खुशी और शाबाशी में उन्हें थपथपाने वाले हाथ नहीं होंगे। दुख में आंसू तो तब भी निकलेंगे, लेकिन उन्हें खुद ही पोछना पड़ेगा। यह सब कुछ जो 20-25 साल में होता, अब जल्दी ही हो जाएगा।

जीवनशैली में बदलाव

छठवां- मैंने कोरिया, ताइवान, जापान, चीन और हांगकांग आदि देशो के कई शहरों में देखा है कि लोग सार्वजनिक स्थानों पर मास्क लगाकर ही घूमते हैं। अब तो शायद पूरी दुनिया में नागरिकों के चेहरे कपड़े से ढके हुए नजर आएंगे। चोरी, डकैती जैसे अपराधों से रक्षा करने के लिए मकानों की बनावटों और रहन-सहन के तरीकों में भी बदलाव आएंगे। मैंने कई अफ्रीकी देशों में देखा है कि साधन सम्पन्न लोगों के घर ऊंची दीवारों और कटीले तारों से घिरे होते हैं। कई शहरों में तो होटल वाले शाम को बाहर न निकलने की हिदायत भी देते हैं। इसके अलावा ज्यादातर बड़े-बड़े दफ्तर सामान के उत्पादन के कारखानों में तब्दील हो सकते हैं। हाल में ही प्रसिद्ध सोशल मीडिया संस्थान ट्विटर के मालिकों ने अपनी यह मंसा जाहिर की है कि दुनिया में उसके सभी कर्मचारी आराम से घर बैठकर पूरा काम कर सकते हैं। इससे उन्हें जरा भी असुविधा नहीं होगी। घरों में अकेले बैठकर काम करने, भीड़ भरे बाजारों में खरीददारी की जगह ऑनलाइन शॉपिंग बढ़ने और शिक्षण संस्थाओं, रेस्त्राओं, सिनेमाघरों आदि सार्वजनिक स्थानों के वीरान सा हो जाने से जान-पहचान के दायरे सिमट जाएंगे। शायद नए-नए वाहनों, कपड़ों, सौन्दर्य प्रसाधनों, आभूषणों और दिखावे की कई वस्तुओं के इस्तेमाल की आपसी होड़ कम हो जाएगी।

बच्चों की शिक्षा में दोहरापन

सातवां- सोशल मीडिया की दोस्तियों में झूठ और फरेब की गुंजाइश ज्यादा होगी। इनके जरिये ऑनलाइन यौन हिंसा तो बढ़नी ही है। खाते-पीते घरों के बच्चे भले ही अच्छे स्कूलों मे पढ़ते हों, किन्तु वे ऑनलाइन पढ़ाए जा रहे पाठों से बोर होते जा रहे हैं। आगे भी शायद स्कूल के पढ़ाई के घंटों को कम करके ऑनलाइन पढ़ाई पर ही जोर दिया जाएगा। शिक्षकों, दोस्तों से मिलकर उन्हें देखे और छुए बिना बच्चों का भावनात्मक समाजीकरण कैसे हो सकता है? दूसरी ओर दूर-दराज के गांवों-कस्बों और झुग्गी-बस्तियों के बच्चों की शिक्षा का स्तर पहले से ही घटिया है, आगे उनकी अच्छी पढ़ाई हो पाएगी, इसमें संदेह है। इन परिस्थितियों में सामाजिक शिष्टाचार, रहन-सहन, भाषा और आपसी रिश्तों के बदलने से सभ्यताओं का संकट गहराएगा।

(कृपया कल के ब्लॉग में समाधानों पर मेरे विचार पढ़ें )

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