आजकल, हर दिन भारत और दुनिया भर से आने वाली खबरें दिल दहला देने वाली हैं। मैं यहां दो हृदय विदारक हादसों का जिक्र कर रहा हूं। पहला भारत का है और दूसरा अमेरिका का। इत्तिफाक से दोनों ही घटनाएं पिछली 25 मई की हैं। 35 साल की अरवीना खातून उन लाखों प्रवासी मजदूरों में से एक थी, जो खौफज़दा होकर शहरों से अपने गांवों की तरफ भाग रहे हैं। वह भी अपने दो बच्चों के साथ अहमदाबाद से किसी ट्रेन में बैठ कर बिहार के कटिहार जिले के अपने गांव लौट रही थी। मुजफ्फरपुर स्टेशन पर पहुंचने के बाद उसकी मृत्यु हो गई। अरवीना कोरोनावायरस से नहीं मरी। वह तो भूख, प्यास और गर्मी से मरी। किसी ने उसका छोटा सा वीडियो बना लिया। उस वीडियो को देखना खुद को शर्मसार करना है। उस बहन का साल-दो साल का बच्चा, मरी हुई अपनी मां के चेहरे से बार-बार कपड़ा खींच रहा था। उसे चीखकर जगाने की कोशिश कर रहा था। वह मासूम अभी तक न तो मौत को जानता था और न ही दुनियादारी को।
आजकल अखबार और टेलीविजन आंकड़ों से भरे रहते हैं। कोरोना वायरस से संक्रमितों के आंकड़े, स्वस्थ हो चुके मरीजों के आंकड़े और मरने वालों के आंकड़े। दूसरी तरफ लुभावने शब्दों वाली स्कीमों में करोड़ों-अरबों रुपयों के आवंटन के आंकड़े होते हैं। आंकड़े मंजिल तक पहुंचने के लिए दूरी, समय आदि की गणना का माध्यम होते हैं, लेकिन मंजिल नहीं हो सकते। खासकर जब इंसानों की जिंदगियों का सवाल हो, तब कोई भी संख्या गणित का जोड़-भाग नहीं हो सकती। उस संख्या के पीछे अपनी तरह का ही एक धड़कता हुआ दिल और भावनाएं होती हैं, जिन्हें महसूस करने की आवश्यकता है। जिस रफ्तार से इंसान केवल आंकड़े बनते जाते हैं, उसी रफ्तार से इंसानियत सिकुड़ती जाती है। अब अरवीना भी एक आंकड़ा ही रह गई है।
गांधी जी द्वारा भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू को दिये गए ताबीज़ में किसी आंकड़े का जिक्र नहीं था। एक ऐसे इंसान के बारे में सोचने को कहा गया था, जो सबसे गरीब और दयनीय है। उन्होंने कहा था कि जिस योजना और नीति से उस व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान आ सके, उसी को ठीक समझना, नहीं तो कचरे में फेंक देना। मुजफ्फरपुर के स्टेशन पर उस मासूम बच्चे के हाथ में सिर्फ मरी हुई मां का आंचल ही नहीं था, बल्कि गांधी जी का वही ताबीज़ था, जिसे भुला देने पर अंतिम व्यक्ति का वही हाल होता है जो अरवीना का हुआ। उसके हाथ में अम्बेडकर का संविधान था और तमाम संतों तथा क्रांतिकारियों के सपने थे, जिन्हें हम ढाल बनाकर दुबककर बैठे रहते हैं, वस्त्रों की तरह ओढते-बिछाते हैं या शरीर और समाज को सजाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। उन्हें सीढ़ियां बनाकर ऊपर चढ़ते हैं। उनकी दुकानें लगाते हैं। लेकिन न्याय, समानता और मानवता की रक्षा के लिए उनको व्यवहार में नहीं उतारते। इसीलिए इस बच्चे के हाथ के कपड़े के नीचे सिर्फ एक मृतक शरीर नहीं था, बल्कि हमारे समाज की सामूहिक संवेदनाओं और नैतिकता की लाश थी। साथियों, अरवीना खातून सिर्फ उस बच्चे की मां ही नहीं थी, भारत माता की तरक्की में जुटी उसी की एक बेटी थी।
दूसरी घटना अमेरिका के मिनियापोलिस की है, जिसकी वजह से पूरे अमेरिका में अश्वेतों ने जबर्दस्त आंदोलन उठा रखा है। जगह-जगह आगजनी, लूटपाट और हिंसा हो रही है। मैं कई बार वहां गया हूं। इस सुंदर शहर में मेरे कई मित्र हैं। वहां भव्य हिन्दू मंदिर है, जहां मुझे दो-तीन बार जाने का मौका मिला है।
25 मई को ही श्वेत अमेरिकी पुलिसवालों ने एक 46 वर्षीय अश्वेत अफ्रीकी-अमेरिकी नागरिक जॉर्ज फ्लॉयड की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी थी। वह एक दुकान से बाहर निकल रहा था। कहा जा रहा है कि उसने 20 डॉलर के बिल का भुगतान नहीं किया था। पुलिस अफसर ने उसे गिरफ्तार करके उसके दोनों हाथ पीछे बांधकर हथकड़ियां लगा दी। फिर बड़ी क्रूरता से उसकी गर्दन पैरों के बीच में भींचकर दबाए रखी, जिससे उसके प्राण छूट गए। अमेरिका के लाखों लोग आज सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं। अश्वेत अफ्रीकी-अमेरिकी ही नहीं, बल्कि मानव अधिकारों में भरोसा रखने वाले हर रंग और नस्ल के लोग उनमें शामिल हैं। ऐसा लग रहा है कि नस्ल भेद के शिकार लोगों के सब्र का बांध टूट चुका है।
अमेरिकी पुलिस के हाथों हर साल लगभग एक हजार लोग मारे जाते हैं। उनमें दो तिहाई अश्वेत होते हैं। हालांकि अभी लोगों का आंदोलन, जॉर्ज फ्लॉयड को इंसाफ तथा पुलिस सुधार की मांग को लेकर है, लेकिन अमेरिकी समाज में व्याप्त नस्लीय भेदभाव ही इसकी बुनियाद है। यही भेदभाव कोविद-19 महामारी के दौरान उजागर हुआ है। अलग-अलग राज्यों में महामारी से मरने वाले लोगों में दो तिहाई से लेकर तीन चैथाई तक अश्वेत अमेरिकी हैं। पहले से ही अश्वेत समुदाय को स्वास्थ्य सुविधाओं का उतना लाभ नहीं मिलता, जितना गोरे अमेरिकियों को। महामारी के दौरान जिन छह में से एक बच्चे को पेट भर खाना नहीं मिल पा रहा है, उनमें ज्यादातर अश्वेत ही हैं। पहले से ही उनमें गरीबी, बेरोजगारी और अनिश्चितता ज्यादा थी, पिछले कुछ महीनों में वह और भी बढ़ गई है।
अरवीना खातून और जॉर्ज फ्लॉयड की घटनाएं अलग-अलग जरूर हैं, लेकिन उनमें एक बड़ी समानता है। समाज का एक बहुत बड़ा मेहनतकश वर्ग जो पहले से ही विषमता, भेदभाव और शोषण का शिकार रहा है, उसका तथाकथित सभ्य और सुसंस्कृत समुदाय से बहुत तेजी से मोह भंग हो रहा है। खुद की आजीविका चलाने के बदले दूसरों की तरक्की और खुशहाली के लिए जिंदगियां झोंकने वाले दुनिया के करोड़ों लोग खुद को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। रोजगारदाताओं, कानून व्यवस्था और सरकारों से उनका भरोसा टूट रहा है। अमेरिका में लाखों अश्वेतों की साझी वेदना सामूहिक गुस्से में बदल कर हिंसक हो उठी है। इस देश की राजनीति में मजबूत नैतिक नेतृत्व की कमी है।
भारत में भी करोड़ों असंगठित और प्रवासी मजदूरों के पास ऐसा कोई सर्व-स्वीकार्य सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व नहीं है, जो भावनात्मक रूप से उन्हें मरहम लगा सके या उनकी वेदना को व्यापक हताशा, अवसाद, हतोत्साह, असमंजस, अविश्वास और भटकाव से रोक पाए। हम अपने गिरेहबान में झांके, तो पाएंगे कि हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि संप्रदायों के बीच, अलग-अलग जातियों के बीच और स्त्री व पुरुषों के बीच भेदभाव की जड़ें कम गहरी नहीं हैं। यह भेदभाव लोकतंत्र, सामाजिक समरसता, आर्थिक समानता और शिक्षा में बहुत बड़ी बाधा है। अब मुझे अंदेशा है कि अगर समय रहते कोविद-19 की त्रासदी से सामाजिक, आर्थिक और भावनात्मक रूप से प्रभावित लोगों की आत्मीयता और ईमानदारी से मदद नहीं की गई, तो उनकी सामूहिक मनःस्थिति व्यापक हिंसा और विंध्वंस को जन्म दे सकती है। जात-पांत, साम्प्रदायिकता, क्षेत्रीय विषमता और उग्रवादी समूह आग में घी की तरह काम करेंगे। मैं बहुत से देशों के अपने साथियों के संपर्क में हूँ। उनमें से कई देशों में लोग भीतर ही भीतर टूट रहें हैं या धधक रहे हैं। उदहारण के तौर पर ब्राज़ील में राजनैतिक या सामाजिक नेतृत्व की रिक्तता ने बहुत चिंताजनक हालात पैदा कर दिए हैं।
इसीलिए करुणा से प्रेरित राजनीति, करुणा से प्रेरित अर्थनीति, स्वास्थ्यनीति, समाजनीति और धर्मनीति की जितनी जरूरत आज है, वह शायद पहले कभी नहीं थी। कोविद-19 की महामारी केवल स्वास्थ्य संकट, आर्थिक संकट और मानवीय संकट ही नहीं है, यह सभ्यता का संकट है। जिसके बड़े दूरगामी प्रभाव पड़ेंगे। कोविद-19 के दौरान और उसके बाद की समस्याओं का हल सिर्फ राजनैतिक और आर्थिक उपायों से नहीं हो सकता। इसके लिए हजारों सालों के अनुभवों पर आधारित सार्वभौमिक और सार्वकालिक मानवीय मूल्यों की व्यवहारिकता से प्रेरित उपाय खोजने की जरूरत है। असीमित ब्रह्माण्ड में धरती और उस पर बांटे गए राष्ट्र बहुत छोटी सी इकाईयां हैं। इसी तरह समय के अनन्त चक्र में 100-50 सालों का कालखंड एक नगण्य सा टुकड़ा है। भले ही मनुष्य जाति का अस्तित्व और असलियत इन दोनों के ओवरलैप यानी एक-दूसरे में गुथ जाने से बने हैं, लेकिन करुणा, कृतज्ञता, परस्पर दायित्व और सहिष्णुता के मानवीय मूल्यों की जरूरत हर युग में रही है। उन्हीं को स्थाई स्वतंत्रता, समानता, न्याय और शांति में बदला जा सकता है। और यह काम हम लोग नहीं करेंगे, तो फिर कौन करेगा? अभी नहीं, तो कब करेंगे? और यह भारत से नहीं होगा, तो कहां से होगा?
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