ओरछा से करीब 25 किलोमीटर दूर पृथ्वीपुर के करगवां मोहल्ले के राज टेलर्स पर 21 नवंबर को आम दिनों से ज्यादा सरगर्मी दिख रही थी। शादियों का सीजन है। कपड़े सिलाई की दुकान में इन दिनों चहल-पहल सामान्य है लेकिन रविवार की सरगर्मी का काम—धंधे से कोई वास्ता न था। दुकान के मालिक राजाराम कुशवाहा ने शॉल, फूलमालाएं और श्रीफल आदि का प्रबंध कर रखा है। घर-परिवार के लोग और आसपास के दुकानदार लगातार उनसे अपडेट ले रहे हैं कि भाई साहब कहां तक पहुंचे, कब तक आ रहे हैं... आदि। सबको भाई साहब यानी कैलाश सत्यार्थी जी का बेसब्री से इंतजार है।
बाल अधिकारों पर अपने उल्लेखनीय प्रयासों के लिए कैलाश सत्यार्थी को नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उनके मध्य प्रदेश प्रवास की खबर मीडिया में आ चुकी है। उनसे मिलने के अभिलाषी लोग बहुत हैं। जाहिर है शेडयूल में समय आगे-पीछे हो रहा है। राजाराम बेसब्र हो रहे हैं। उनके पास जो भी सूचनाएं आ रही है, वे लोगों के साथ शेयर कर रहे हैं।
कई लोग राजाराम से सिफारिश कर रहे हैं कि भाई साहब के साथ कम से कम एक फोटो-सेल्फी करा देना। उन सबके लिए भाई साहब से मिलने या उनके साथ फोटो खिंचाने का एकमात्र जरिया राजाराम हैं। राजाराम सबको आश्वासन दे रहे हैं। भाई साहब के साथ आश्रम के दिनों की कहानियां सुना रहे हैं कि वे आश्रम में रहने के दौरान भाई साहब और माताजी के साथ खाते थे, नारे लगाते थे, गीत गाते थे। भाई साहब उन्हें ही सबसे ज्यादा स्नेह देते थे। कुल मिलाकर आज राजाराम यहां वीआईपी हैं।
राजाराम बताते हैं, “जब हमने सुना कि भाई साहब पास के जेरोन गांव में अपने ड्राइवर इमामी खान की बेटी की शादी में शामिल होने वाले हैं तो हम सब उत्साहित हो गए क्योंकि वहां पहुंचने का रास्ता तो यही है। और ऐसा हो नहीं सकता कि भाई साहब खबर हो कि उनका बबलू यहीं रहता है और वे बिना बबलू को आशीर्वाद दिए चले जाएं।” राजाराम का प्यार का पुकारू नाम बबलू है। यहां वे राजाराम टेलर हैं लेकिन श्री सत्यार्थी और उनके संगठन के लोगों के लिए ‘उनके बबलू’।
दरअसल बबलू बचपन में टीकमगढ़ की खदानों में मजदूरी किया करते थे। श्री सत्यार्थी की संस्था बचपन बचाओ आंदोलन कई दशक से खनन कार्य को बालश्रम मुक्त बनाने का अभियान चला रही है। संस्था बाल श्रमिकों को काम से निकालकर अपने बाल आश्रमों में उनकी पढ़ाई, स्वास्थ्य और जैसी बुनियादी जरूरतों को पूरा करते हुए उन्हें उनकी रूचि के अनुसार प्रशिक्षण भी देती है ताकि वयस्क होने के बाद वे बच्चे अपने जीवन की राह खुद चुन सकें। बबलू को 2003 में जब बचपन बचाओ आंदोलन के जयपुर के विराटनगर स्थित बाल आश्रम लाया गया तब उनकी उम्र बमुश्किल 13-14 साल थी।
बाल आश्रम से निकले सैकड़ों बच्चे देश-दुनिया की कई संस्थाओं में कार्यरत हैं और अपने जैसे दूसरे बच्चों की जिंदगी संवार रहे हैं। बबलू उन दिनों को याद करके भावुक हो जाते हैं। भर्राई आवाज में बबलू बताते हैं, “जब मैं बाल आश्रम गया और वहां मैंने भाई साहब, माताजी (कैलाशजी की धर्मपत्नी सुमेधा सत्यार्थी को बच्चे स्नेहवश माताजी ही कहते हैं) और आश्रम के अन्य लोगों से मिला तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ कि धरती पर ऐसे लोग भी होते हैं। मुझे तो सिर्फ गालियां और मार खाने की आदत थी। प्यार से सिर पर हाथ फेरने की तो छोड़िए, खदानों में किसी के मुंह से इज्जत से नाम पुकारते भी नहीं सुना था। मैं सोचता था यह कौन सी दुनिया है, क्या यह सब सच है या मैं कोई सपना देख रहा हूं।”
लेकिन बाल आश्रम का जिक्र छिड़ते ही बबलू के मन से इंसान और इंसानी बर्ताव को लेकर सारी कड़वाहट पल भर में दूर हो जाती है। वे उत्साह में भरकर बताते हैं, “भाई साहब और माता जी के पास आकर तो पत्थर भी सोना बन जाता है. आश्रम में मुझे अक्षर ज्ञान भी हुआ और किशन मास्टरजी से मैं सिलाई का मास्टर भी बन गया. देखिए, दुकान भी जमा ली है. पक्का घर भी बना लिया है. आपको पता है, मेरे साथ आश्रम में रहे कई बच्चे आज हाई कोर्ट में वकील हैं. कई बड़े कॉलेजों में मास्टरी कर रहे हैं, अफसरों की तरह धड़ाधड़ अंग्रेजी बोलते हैं. मेरे बच्चे भी इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ते हैं.”
बबलू का ‘इंग्लिश मीडियम’ पर विशेष जोर कैलाश सत्यार्थी के नोबल पुरस्कार प्राप्त करने पर कही उन बातों की प्रतिध्वनि है कि बच्चों के हाथों में किताबें देकर ही दुनिया सुंदर बनाई जा सकती है। 31 वर्षीय बबलू के दो बेटे हैं। दोनों इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ते हैं। कभी खदानों में हाड़-तोड़ मजदूरी के बाद भी दिहाड़ी के बदले मालिक की मार खाकर भूखे पेट सो जाने को विवश बबलू, आज अपनी पत्नी और पिता के साथ मिलकर टेलरिंग के साथ-साथ रेडिमेड कपड़े की एक दुकान चलाते हैं और कॉस्मेटिक्स की तीसरी दुकान खोलने की तैयारी चल रही है। बबलू बताते हैं, “हमारे पास न सर ढंकने की जगह थी न पिताजी की दिहाड़ी से दोनों वक्त की रोटी पूरी हो पाती थी। भूख ने मुझे काम करने को मजबूर किया। मेरी उस मजबूरी का ठेकेदार ने बहुत फायदा उठाया, मेरा हर तरह से शोषण हुआ। मैं उन काले दिनों को अपनी जिंदगी से मिटा देना चाहता हूं।”
आखिर बबलू के इंतजार की घड़ियां समाप्त हुईं। कैलाश सत्यार्थी अपनी पत्नी सुमेधा कैलाश के साथ बबलू की दुकान में पहुंचे तो वातावरण बड़ा भावुक हो गया था। श्री सत्यार्थी भी अपने एक बच्चे की सफलता से गदगद थे तो सुमेधा जी को भी अपने इस बच्चे पर लाड आ रहा था। उसकी और सफलता की दुआएं कर रही थीं। उन्होंने अपने बबलू के बेटों को पुचकारा, दुलार किया, खूब आशीर्वाद दिया। बबलू से उनके बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के बारे में तसल्ली होने तक पूछताछ की। बबलू बताते हैं, “भाईसाहब जी और माता जी ने मुझे अब तक बाल आश्रम में देखा था। आज उन्होंने उस पौधे की कामयाबी को देखा जिसे उन्होंने अपने हाथों सींचा है। वे माता-पिता की तरह भावुक और खुश हो रहे थे। मैं अपनी भावनाएं तो शब्दों में बता ही नहीं पाऊंगा।”
श्री सत्यार्थी अपने परिजनों और साथियों के साथ अपने उस पड़ाव की ओर निकल पड़े जिसके लिए वे विदेश के कई महत्वपूर्ण कार्यक्रम को छोड़कर मध्य प्रदेश प्रवास कर रहे थे। उनका पड़ाव करीब 35 किलोमीटर दूर जेरोन गांव है जहां वे अपना बरसों पुराना वादा निभाने जा रहे हैं। अपनी बेटी के निकाह में शामिल होने जा रहे हैं। जेरोन में उनके ड्राइवर इमामी खान की बेटी नसरीन का निकाह है। इमामी खान से करीब डेढ़ दशक पहले सत्यार्थी ने वादा लिया था कि वे अपनी बिटिया को खूब पढ़ाएं-लिखाएं तो मैं दुनिया के किसी भी कोने में रहूं अपनी बेटी की शादी में उसे आशीर्वाद देने जरूर आउंगा। श्री सत्यार्थी, विदेश का महत्वपूर्ण कार्यक्रम छोड़कर अपनी धर्मपत्नी और संगठन के साथियों समेत अपना वही वादा निभाने आए हैं।
(यह लेख राजन प्रकाश ने लिखा है जो वहां मौजूद थे)
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